शिक्षा के ये उजले-अंधेरे कोने
हमारी शिक्षा प्रणाली की कुछ उत्साहित तो कुछ उदास करने वाली दो खबरें हमारे सामने हैं। शुरूआत अच्छी खबर से करते हैं। खबर जापान से है। वहां भारतीय शिक्षा की मांग लगातार बढ़ रही है। जापान में अचानक भारतीय स्कूलों की तादाद बढ़ी है। उसमें जापानी बच्चे दाखिला ले रहे हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इन स्कूलों से पढ़कर निकल रहे बच्चे, दूसरे स्कूलों के बच्चों से कहीं बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। एक ऐसे दौर में जब हमारे अधिकांश युवा पढ़ाई के लिए विदेशों का ही रुख करना चाहते हैं, यह खबर हवा के एक ताजे झोंके की तरह है। भारतीय शिक्षा प्रणाली का एक बार फिर विदेशों में बढ़ता क्रेज उम्मीद जगाता है। साथ ही यह तस्दीक भी करता है कि भारत को कभी विश्व गुरु यूं ही नहीं कहा जाता था। यह हमें विश्वास देता है कि अगर हम अपनी सरकारी स्कूलों की शिक्षा को लगातार कोसने की बजाय उसमें कुछ गुणात्मक बदलाव करें, तो नतीजे कई ज्यादा बेहतर होंगे।
दूसरी खबर कुछ उदास करती है। गुड़गांव के एक स्कूल में एक छात्र की हत्या को लोग अभी भूले भी नहीं हैं कि मध्य प्रदेश के सतना में एक ऐसी ही घटना ने दिल दहला दिया है। गुरुवार को दसवीं के एक छात्र ने अपने ही स्कूल के जूनियर छात्र की कैंपस में गोली मारकर हत्या कर दी। महज एक महीने से भी कम समय के अंदर हुई ये घटनाएं चौंकाती हैं। अभी तक इस तरह की घटनाएं हमें विदेशों के स्कूलों में ही देखने-सुनने को मिलती थीं। लेकिन लगता है कि स्कूलों में हिंसा का यह वायरस हमारी शिक्षा प्रणाली में भी घुस गया है। इसकी जड़े स्कूलों से ज्यादा उसकी चहारदीवारी से बाहर फैली नजर आती हैं। टीवी सीरियलों, फिल्मों, कंप्यूटर गेम और यहां तक कि हमारे न्यूज चैनलों तक में जिस तरह से हिंसा परोसी जा रही है, उसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव हमारे बच्चों पर पड़ रहा है। बच्चे का कोमल मन जो कुछ देखत-सुनता है, वह उस पर अमल भी करने लगता है। नतीजतन साथियों से मामूली सी बात को लेकर हुआ झगड़ा यह रूप ले लेता है। आज जब विदेशों तक भी हमारी शिक्षा प्रणाली की धाक है, ऐसे में इस तरह की घटनाएं हमें आत्ममंथन को मजबूर करती हैं।
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हमारी शिक्षा प्रणाली की कुछ उत्साहित तो कुछ उदास करने वाली दो खबरें हमारे सामने हैं। शुरूआत अच्छी खबर से करते हैं। खबर जापान से है। वहां भारतीय शिक्षा की मांग लगातार बढ़ रही है। जापान में अचानक भारतीय स्कूलों की तादाद बढ़ी है। उसमें जापानी बच्चे दाखिला ले रहे हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इन स्कूलों से पढ़कर निकल रहे बच्चे, दूसरे स्कूलों के बच्चों से कहीं बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। एक ऐसे दौर में जब हमारे अधिकांश युवा पढ़ाई के लिए विदेशों का ही रुख करना चाहते हैं, यह खबर हवा के एक ताजे झोंके की तरह है। भारतीय शिक्षा प्रणाली का एक बार फिर विदेशों में बढ़ता क्रेज उम्मीद जगाता है। साथ ही यह तस्दीक भी करता है कि भारत को कभी विश्व गुरु यूं ही नहीं कहा जाता था। यह हमें विश्वास देता है कि अगर हम अपनी सरकारी स्कूलों की शिक्षा को लगातार कोसने की बजाय उसमें कुछ गुणात्मक बदलाव करें, तो नतीजे कई ज्यादा बेहतर होंगे।
दूसरी खबर कुछ उदास करती है। गुड़गांव के एक स्कूल में एक छात्र की हत्या को लोग अभी भूले भी नहीं हैं कि मध्य प्रदेश के सतना में एक ऐसी ही घटना ने दिल दहला दिया है। गुरुवार को दसवीं के एक छात्र ने अपने ही स्कूल के जूनियर छात्र की कैंपस में गोली मारकर हत्या कर दी। महज एक महीने से भी कम समय के अंदर हुई ये घटनाएं चौंकाती हैं। अभी तक इस तरह की घटनाएं हमें विदेशों के स्कूलों में ही देखने-सुनने को मिलती थीं। लेकिन लगता है कि स्कूलों में हिंसा का यह वायरस हमारी शिक्षा प्रणाली में भी घुस गया है। इसकी जड़े स्कूलों से ज्यादा उसकी चहारदीवारी से बाहर फैली नजर आती हैं। टीवी सीरियलों, फिल्मों, कंप्यूटर गेम और यहां तक कि हमारे न्यूज चैनलों तक में जिस तरह से हिंसा परोसी जा रही है, उसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव हमारे बच्चों पर पड़ रहा है। बच्चे का कोमल मन जो कुछ देखत-सुनता है, वह उस पर अमल भी करने लगता है। नतीजतन साथियों से मामूली सी बात को लेकर हुआ झगड़ा यह रूप ले लेता है। आज जब विदेशों तक भी हमारी शिक्षा प्रणाली की धाक है, ऐसे में इस तरह की घटनाएं हमें आत्ममंथन को मजबूर करती हैं।
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