Friday, January 4, 2008

शिक्षा के ये उजले-अंधेरे कोने
हमारी शिक्षा प्रणाली की कुछ उत्साहित तो कुछ उदास करने वाली दो खबरें हमारे सामने हैं। शुरूआत अच्छी खबर से करते हैं। खबर जापान से है। वहां भारतीय शिक्षा की मांग लगातार बढ़ रही है। जापान में अचानक भारतीय स्कूलों की तादाद बढ़ी है। उसमें जापानी बच्चे दाखिला ले रहे हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इन स्कूलों से पढ़कर निकल रहे बच्चे, दूसरे स्कूलों के बच्चों से कहीं बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। एक ऐसे दौर में जब हमारे अधिकांश युवा पढ़ाई के लिए विदेशों का ही रुख करना चाहते हैं, यह खबर हवा के एक ताजे झोंके की तरह है। भारतीय शिक्षा प्रणाली का एक बार फिर विदेशों में बढ़ता क्रेज उम्मीद जगाता है। साथ ही यह तस्दीक भी करता है कि भारत को कभी विश्व गुरु यूं ही नहीं कहा जाता था। यह हमें विश्वास देता है कि अगर हम अपनी सरकारी स्कूलों की शिक्षा को लगातार कोसने की बजाय उसमें कुछ गुणात्मक बदलाव करें, तो नतीजे कई ज्यादा बेहतर होंगे।
दूसरी खबर कुछ उदास करती है। गुड़गांव के एक स्कूल में एक छात्र की हत्या को लोग अभी भूले भी नहीं हैं कि मध्य प्रदेश के सतना में एक ऐसी ही घटना ने दिल दहला दिया है। गुरुवार को दसवीं के एक छात्र ने अपने ही स्कूल के जूनियर छात्र की कैंपस में गोली मारकर हत्या कर दी। महज एक महीने से भी कम समय के अंदर हुई ये घटनाएं चौंकाती हैं। अभी तक इस तरह की घटनाएं हमें विदेशों के स्कूलों में ही देखने-सुनने को मिलती थीं। लेकिन लगता है कि स्कूलों में हिंसा का यह वायरस हमारी शिक्षा प्रणाली में भी घुस गया है। इसकी जड़े स्कूलों से ज्यादा उसकी चहारदीवारी से बाहर फैली नजर आती हैं। टीवी सीरियलों, फिल्मों, कंप्यूटर गेम और यहां तक कि हमारे न्यूज चैनलों तक में जिस तरह से हिंसा परोसी जा रही है, उसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव हमारे बच्चों पर पड़ रहा है। बच्चे का कोमल मन जो कुछ देखत-सुनता है, वह उस पर अमल भी करने लगता है। नतीजतन साथियों से मामूली सी बात को लेकर हुआ झगड़ा यह रूप ले लेता है। आज जब विदेशों तक भी हमारी शिक्षा प्रणाली की धाक है, ऐसे में इस तरह की घटनाएं हमें आत्ममंथन को मजबूर करती हैं।



.

Sunday, August 12, 2007

ब्लॉग की भाषा

औपचारिकताएं भाषा को सीमा में बांध देती हैं। अखबार, टीवी, रेडियो और दूसरे जनमाध्यमों की भाषा हालांकि बोलचाल तक पहुंच चुकी है, लेकिन उससे वह खिलंदड़पन गायब है। खिलंदड़पन के माने फूहड़ता से नहीं, भाषा की मासूमियत से है। शायद कुछ-कुछ वैसा ही जैसे एक मासूम बच्चे और सयाने आदमी की हंसी का फर्क। हम जैसे हैं ठेठ वही। ब्लॉग की भाषा में यह स्वस्फूर्तता नजर आती है। यहां मुंबइया ठेठपन है, तो भोजपुरी तड़का भी। जैसे हम हैं, जैसा बोलते-बरतते हैं खालिस वही। यही ब्लॉग्स की लोकप्रियता का कारण भी है।
ब्लॉग की भाषा का यह देसीपन और बेलाग शैली हिंदी को वह ताकत दे रही है, जिसकी उसे जरूरत थी। हिंदी ब्लॉग्स पर आप एक नजर डालेंगे, तो विभिन्न भाषा-बोलियों के बेशुमार शब्द मिलेंगे। भोजपुरी, गढ़वाली, कुमांउनी, मैथिली, डोगरी आदि के शब्दों का चिट्ठाकार जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। जनसंचार माध्यमों का जैसे-जैसे स्थानीयकरण हो रहा है, वैसे-वैसे हिंदी का प्रसार तो हो रहा है। लेकिन यह हमारी भाषाओं और बोलियों पर भारी पड़ रहा है। गौर से देखें तो, अंगरेजी भाषा के साम्राज्यवाद की यह पूरी चेन सी नजर आती है। आप अपने आसपास के ही किसी कस्बे को ले लीजिए। आप देखेंगे कि एक दौर में वहां अच्छी-खासी तादाद में मातृभाषा बोली जाती थी। हिंदी के प्रसार के साथ अगली पीढ़ी के लोग हिंदीभाषी हो गए। और उसके बाद जो नई पीढी़ आई, वो अंगरेजी बोलती-पढ़ती है। मतलब पहले आपकी मातृभाषा खत्म हुई और फिर हिंदी। हमारे अभरते मेट्रो शहरों की अधकचरी भाषा इसी की परिणति है। तो फिर हिंदी के प्रसार पर इतने फूलने की क्या जरूरत है। क्या आपको नहीं लगता है कि हिंदी का फैलाव अंगरेजी के लिए जमीन तैयार कर रहा है ? इस माहौल में ब्लॉग उम्मीद बांधते हैं। हालांकि अभी यह कुछ ही हाथों तक सीमित है, लेकिन आने वाले वक्त में अखबार, रेडियो, टीवी, इंटरनेट के बाद यह पांचवे मीडिया का रूप में उभरेगा।

Friday, August 10, 2007

...क्योंकि हॉकी में 'छक्के' नहीं होते


सनसनाता हुआ गोल और सीटियों व तालियों से गूंजता हॉल। यह गोल न शाहरुख खान का है, न पाकिस्तान जैसे 'दुश्मन' देश के खिलाफ। फिल्मी दुनिया में अभी-अभी पांव धरे किसी अनजान सी बाला ने आस्ट्रेलिया के खिलाफ ठोका है यह गोल। कौन कहता है कि देश में हॉकी के मुरीद नामुराद हो चुके हैं। शाहरुख खान और उनकी 16 'हीरोइनों' की टीम से लैस फिल्म 'चक दे इंडिया' देखिए। फिल्म में बस हॉकी बोलती है। सत्तर मिनट के खेल पर 150 मिनट की फिल्म। और यकीन मानिए खालिस 150 मिनट हॉकी के नाम। न ग्लैमर न उन्माद, बस हॉकी। वही हॉकी जिसको देखकर हम चैनल बदल देते हैं। वही हॉकी जिसके खिलाड़ियों की बात छोड़ दीजिए, कप्तान का नाम तक किसी को पता नहीं होता। हां, क्रिकेट का अगला कप्तान और कोच कौन होगा, यह गली के नुक्कड़ पर बैठा पानवाला भी आपको बता देगा। तो आखिर ऐसा क्यों हुआ कि हॉकी डाउन मार्केट मार्का खेल बनकर रह गई। क्या लोग वास्तव में हॉकी नहीं देखना चाहते। तो फिर हॉकी के एक गोल और क्रिकेट के खिलाफ कमेंट पर अपनी सीटों पर उछलते दर्शक, क्या है यह ? लोगों उन्माद हॉकी के मैदान तक पहुंचते-पहुंचते क्यों ठंडा हो जाता है। क्रिकेट के लिए आठ घंटे तक सीट पर जमा रहने वाला हॉकी को सत्तर मिनट क्यों नहीं दे सकता, इसकी वजहें तलाशनी होंगी।
खराब प्रदर्शन इसका कारण नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता, तो विश्व कप में भारत के प्रदर्शन और मैच फिक्सिंग जैसे विवादों के बाद क्रिकेट का ग्राफ हॉकी से कहीं नीचे गिर जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कहीं खबरों तो कहीं खेलों के बारे में गोयबल्स टाइप डाउन मार्केट रट्टे से हकीकत कहीं इतर है। क्रिकेट ही नहीं हॉकी भी सर्कुलेशन और टीआरपी बढ़ाने का माद्दा रखती है। बशर्ते उसे जगह मिले। बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म चले न चले, लेकिन अपनी हॉकी को बहुत कुछ दे जाएगी यह फिल्म। ...क्योंकि हॉकी में 'छक्के' नहीं होते।

Wednesday, May 23, 2007

टेलिविजन का बदला न विजन


यमुना पुश्ते में आग से ढाई सौ झोंपड़िया राख। दो घंटे में... सब कुछ खत्म। हमारे खबरिया चैनलों पर भी महज दो मिनट में सब कुछ खत्म। करीब तीन दशक पहले 1970-75 के बीच लिखी रघुवीर सहाय की यह कविता आज भी कितना कुछ कहती है।

मैं संपन्न आदमी हूं, है मेरे घर में टेलिविजन
दिल्ली और बंबई दोनों के बतलाता है फैशन
कभी-कभी वह लोकनर्तकों की तसवीर दिखाता है
पर यह नहीं बताता है उनसे मेरा क्या नाता है
हर इतवार दिखाता है वह बंबइया पैसे का खेल
गुंडागर्दी औ नामर्दी का जिसमें होता है मेल
कभी-कभी वह दिखला देता है भूखा-नंगा इंसान
उसके ऊपर बजा दिया करता है सारंगी की तान
कल जब घर को लौट रहा था देखा उलट गई बस
सोचा मेरा बच्चा इसमें आता रहा न हो वापस
टेलिविजन ने खबर सुनाई पैंतीस घायल एक मरा
खाली बस दिखला दी, खाली दिखा नहीं कोई चेहरा
वह चेहरा जो जिया या मरा व्याकुल जिसके लिए हिया
उसके लिए समाचारों के बाद समय ही नहीं दिया
तब से मैंने समझ लिया है अकाशवाणी में बनठन
बैठे हैं जो खबरोंवाले वे सब हैं जन के दुश्मन
उनको शक था दिखला देते अगर कहीं छत्तीस इंसान
साधारण जन अपने-अपने लड़के को लेता पहचान
ऐसी दुर्भावना लिए है जन के प्रति जो टेलिविजन
नाम दूरदर्शन है उसका काम किंतु है दुर्दशन

Wednesday, May 2, 2007

खबर का असर

...साहब पुलिस वाले सारी मछलियां उठा ले गए। कल तो सबकुछ ठीकठाक था। पता नहीं रात ही रात...। उसके चेहरे पर बेचारगी थी और ओठों पर मुस्कराहट। मगर चिपकी हुई। दरअसल यह एक खबर का असर था। जिसका असर उसकी रोजी-रोटी पर भी पड़ा था। शहर में बिना लाइसेंस के मांस बिकने की खबर छपने से पुलिस सुबह-सवेरे जाग उठी थी। करीब तीन लाख रुपये का मांस जब्त कर लिया गया था। खबर का यह दोतरफा असर है। जिसका दूसरा पहलू अक्सर खबर नहीं बनता। पुलिस ने माल का कैसे बंदरबांट किया और जिनका माल छीना गया, उनकी रात कैसे कटी, कर्जे के बोझ में वह कितने इंच और धंसा। यह खबर नहीं है। आखिर यह खबर क्यों नहीं बनती ? क्योंकि यह डाउन मार्केट है। डाउन मार्केट बोले तो, फटी जेब वाले की खबर। आपका एलीट पाठक यह नहीं पढ़ना चाहता। खबर उसी के लिए है, जो मांस खाकर अपने राने मोटी करता है। वह आपका पाठक है, मालदार पाठक। इसलिए हमारे लिए खास है। हमारी सेहत उससे जुड़ी हुई है। खबरदार उसकी सेहत से खिलवाड़ करने की कोशिश की तो...।
अब टीवी चैनलों के क्राइम शो को देखिए। यहां डाउन मार्केट खबर (माफ कीजिए) और क्राइम की ऐसी केमेस्ट्री है कि वही माल अपमार्केट हो जाता है। बुधई की बेटी को रामखिलावन कैसे भगा ले गया, नामनरेश के भाई की उसके भाई ने ही कैसे गला काट डाला सेलेबल आइटम है। एंकर की रूह कंपाती आवाज में यह हॉरर शो रामसे ब्रदर्स की फिल्मों सा मजा देते हैं। क्या कभी इसकी पड़ताल हुई है, कि जो अधकचरी खबर आपने सारी रात अपने चैनल पर चलाई उससे दूसरे की जिंदगी पर क्या असर पड़ा। डीपीएस एसएमएस कांड मामले में तो, शर्मसार बाप ने खुदकुशी कर ली थी। अवैध संबंधों के कारण हुई साहनी साहब के बेटे की खबर क्राइम शो में नहीं चलती। क्यों ? क्योंकि पहला वह आपका दर्शक है, दूसरा वह आपके चैनल के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। ...तो असरदार खबर लीखिए जनाब।

Monday, April 23, 2007

कैमरे के डंक से विष पुरुष की मौत

शायद आप सोबरन को न जानते हों, लेकिन विष पुरुष से आपमे से कुछ का परिचय जरूर होगा। साल के शुरुआत में टीवी चैनलों पर सांपों से खुद को डंसवाते एक आदमी की सनसनीखेज तस्वीरें। याद आईं न। इस घटना के कुछ ही दिन बाद सोबरन की मौत हो गई थी। लेकिन उसकी मौत खबर नहीं खबर बनी। मैने यह लेख तभी लिखा था। कुछ ताजा प्रसंगों के साथ इसे आपके सामने पेश कर रहा हूं।

सांपों से खेलना बस उसका शौक था। मीडिया ने उसे नाम दिया विष पुरुष। वह अचानक लाइम लाइट में आ गया। कल तक सांपों से खेलने वाला विष पुरुष यानी सोबरन अब मीडिया के हाथों खेलने लगा। उसका शौक अब तक ग्लैमर बन चुका था। और कैमरे की चकाचौंध के बीच ज्यादा से ज्यादा सांपों से खुद से डंसवाना जुनून। कुछ मीडियाकर्मियों ने उसे इसके लिए उकसाया भी। जिससे की स्टोरी के लिए कुछ सनसनाते हुए विजुअल्स मिल सकें।
कई बार मना करने के बाद भी कुछ मीडियाकर्मियों द्वारा लाए गए ब्राउन कोबरा से उसने खुद को डंसवाया और चंद घंटे बाद उसकी मौत हो गई। उत्तर प्रदेश के एटा जिले के एक छोटे से कस्बे में सोबरन की मौत ने मीडिया की भूमिका पर एक बार फिर सवाल कर दिए हैं। सोबरन की मौत के लिए जिम्मेदार मीडियाकर्मियों पर उंगली तक नहीं उठी। प्राइम टाइम में टीवी चैनलों पर छाए सोबरन की मौत की खबर अंदर के पेज पर एक कॉलम में सिमट कर रह गई।
सोबरन का मामला एक बानगी भर है। आज जनसत्ता मे छपी खबर को ही लें। दिल्ली में एक विधवा महिला ने दो टीवी चैनलों के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया है। उसका कहना है कि उसके पति की मौत ट्रेन से गिरकर हुई थी। लेकिन टीवी चैनलों ने उसके ससुर के सात मिलकर इस मामले को सनसनीखेज तरीके से पेश कर उसका चरित्र हनन किया। टीवी चैनलों के क्राइम शो में महज रिपोर्ट दर्ज करने के बाद जिस तरह से आरोपी का पोस्टमार्टम कर दिया जाता है, शायद उसका असर जानने की किसी ने कोशिश की हो।

Thursday, April 19, 2007

हाय हया तुमने ये क्या किया

ओफ शिट...। जह्नावी उर्फ हया, हाय तुमने ये क्या किया। काश थोड़ी तैयारी और कर ली होती। कहां हम सोच रहे थे कि हमारे चैनल वालों को दिनभर का मसाला मिल जाएगा। और तुमने कुछ घंटों में निपटा दिया। गुस्ताखी माफ दूरदर्शन(टीवी चैनलों) के मेरे दूरदर्शी दोस्तों। मगर बात का बतंगड़ बनने में शायद हया की अधकचरी तैयारी ही आड़े आ गई। शुक्रवार रात के बाद से हया की प्रेस कांफ्रेस तक जो कुछ हुआ, अतिरंजित हुआ। सात नंबर वालों ने तो गजब ही ढाया। दौड़ में थोड़े आगे जरूर रहे,लेकिन मामले को सनसनीखेज बनाने में कोई कसर न छोड़ी। पूरे मामले में अंग्रेजी के चैनलों सीएनएन आबीएन और एनडीटीवी 24 बाई 7 का नजरिया काबिलेतारीफ रहा। जब हमारे हिंदी के चैनलों पर यह ड्रामा चल रहा था, अंग्रेजी के चैनलों की नजर कुछ दूसरे मुद्दों पर थी। एनडीटीवी इंडिया वाले संभले-संभले दिखाई दिए। कमाल खान ने कहा, हया के बच्चे का नाम बताना मुनासिब न होगा। क्या खूब कहा कमाल। लेकिन दूसरे चैनलों का क्या करिएगा जनाब। आधे घंटे बाद एक चैनल ने तो बच्चे की फोटो ही दिखा डाली। और अपने नंबर सात वालों को देखिए। ज्योतिषी को बुलाकर कहने लगे, हमने तो पहले ही कहा था, ऐश्वर्या तो मंगली हैं। लफड़ा तो होना ही था।... सच ही है जनाब मास की दौड़ में क्लास पीछे छूट ही जाती है।